Thursday, November 21, 2024

दूसरे दिन मैं स्कूल आई तो माधुरी गेट पर ही मिल गई। वह एक लड़के से हंस-हंसकर बातें कर रही थी। ‘मेरे संस्कार ही ऐसे थे, कि मैं जिस किसी स्त्री-पुरुष या लड़का-लड़की को हंसते बोलते देखती तो मैं उनके संबंधों को लेकर सशंकित हो उठती। मेरा सोचने का नजरिया ही बदल गया था।

हालांकि पहले मैं ऐसी नहीं थी। तभी मैंने देखा, वह लड़का कोई और नहीं, बल्कि किशोर है, जो बातें करते-करते माधुरी का हाथ थाम लेता है।’ मैं उन्हें नजदीक आते ही चहक पड़ी-‘हलो माधुरी, कैसी हो?’

माधुरी मेरे गाल पर एक प्यार भरी चपत लगाते हुए बोली-‘जब मैं कहीं बाहर जाती हूं तब ही तू मेरे घर आती है? यह किशोर है, मेरा बेस्ट फ्रण्ड।’ माधुरी ने किशारे की ओर इशारा करते हुए कहा तो मैं हंसने लगी-‘क्या किशोर को मैं नहीं जानती कि तूं परिचय करवा रही है? हां, किशोर तेरा बेस्ट फ्रेण्ड है यह मुझे मालूम नहीं था।’ मैं यह कहते-कहते चुप लगा गई।

किशोर मुझे ही एकटक देख रहा था। उसकी आंखों में शरारत थी। तभी वह आंख नचाते हुए बोला-‘माधुरी, तुम्हारी यह सहेली तो बड़ी ही सुन्दर और स्मार्ट है।’

‘क्या माधुरी बदसूरत है?’ मैंने व्यंग्य किया तो किशोर माधुरी की ओर से देखकर बोला-‘माधुरी, बुरा न मानना, तुम्हारी सहेली हम दोनों में गैप डलवाना चाहती है।’ किशोर के यह कहते ही माधुरी हंसने लगी। मैं भी बिना हंसे न रह सकी।

शाम के चार बजे मैं माधरी को ढूंढने लगी। वह तीन बजे से ही क्लास से गायब थी। किशोर भी कहीं दिख नहीं रहा था। मैंने माधुरी की सहेली मीना से पूछा। उसने मुस्कराते हुए ही कहा कि वह स्कूल के पिछवाड़े वाले बाग में गई होगी। मैं यह सुनकर हैरान रह गई-‘साढ़े चार बजने वाले हैं। वह इस समय उधर क्या करने गई है? उधर का इलाका तो जंगलों का है। वह होश में तो है।’

नहीं चाहते हुए भी मैं स्कूल के पिछवाड़े की ओर बढ़ गई। हालांकि उधर जाना एक लड़की के लिए खतरे से खाली नहीं था। अभी पिछले महीने से ही तो एक स्कूल की लड़की की लाश बाग में मिली थी। कुछ दरिंदों ने उसके साथ बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी है थी।

मुझे काफी डर भी लग रहा था। फिर भी मैं दबे पांव झाड़ियों के बीच से होते हुए बाग में पहुंच गई। तभी मैंने एक घने पेड़ की ओट में खड़े माधुरी और किशोर को देखा। मेरे तो होश ही उड़ गए-‘माधुरी यहां किशोर के साथ क्या करने आई है?’

मुझे कुछ गड़बड़ लगा तो मैं सधे पांवों से एक दूसरे पेड़ की ओर बढ़ गई। मैं उस पेड़ की ओट में आकर खड़ी हुई तो मेरा दिल धड़कना भूल गया। मैंने देखा, माधुरी ने अपनी पैंट एक तरफ खोलकर रख दी थी और किशोर ने भी अपनी पैंट उतार दी थी।

वे एक-दूसरे की बांहों में ऐसे समाए हुए थे, जैसे बहुत दिनों के बाद मिले हों या ठंड से बचने के लिए एक-दूसरे से चिपके हुए हों। फिर तभी मैंने जो दृश्य देखा, उसने मेरे रोंगटे खड़े कर दिए। मैं चुपचाप पेड़ के सहारे खड़ी उनकी यौन क्रीड़ा देखती रही। जब वे झाड़ी की ओर बढ़े तो मैं भी पेड़ों की ओट से होते हुए झाड़ी की ओर बढ़ गई। वे तेज-तेज कदमों से चल रहे थे।

आगे पीछे कुछ भी नहीं देख रहे थे। जब वे झाड़ी को पार कर स्कूल के ग्राउण्ड की ओर बढ़े तो माधुरी की आवाज सुनाई दी- ‘किशोर, तुम पहले जाओ। हम दोनों साथ-साथ जाएंगे तो कोई शक कर सकता है।’

माधुरी यह कहकर इधर ही खड़ी हो गई। किशोर चला गया।

किशोर के जाते ही मैं तेज कदमों से आगे बढ़ गई। मैं माधुरी को पकड़ लेना चाहती थी और उससे यह पूछना चाहती थी, कि माधुरी तूं किस मजबूरी में किशोर के साथ यह खेल-खेल रही है?’

आखिर मैंने माधुरी को पकड ही लिया। वह मेरे तेज-तेज कदमों की आवाज सुनकर ऐसे चौंक कर मुडी जैसे किसी हिरण पर शेर ने अचानक ही हमला बोल दिया हो और वह संभलते-संभलते गिर गया हो। माधुरी मुझे वहां देखकर हैरान ही नहीं थी, बल्कि काफी डरी हुई थी।

उसका चेहरा सफेद पड़ गया था। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘तू तो मेरी सहेली है। कोई अपनी सहेली को देखकर ऐसे डरती है? मैं तो इधर तुमको ढूंढती हुई चली आई थी। अब बता! तूं इधर क्या करने आई थी?’

माधुरी एक काफी सुलझी हुई लड़की थी। वह इतना तो जान ही गई, कि मैंने सब कुछ देख लिया है। वह कोई बहाना न करते हुए बोली- ‘मैं क्या करूं काजोल, जैसे कोई युवक हस्तमैथुन का आदी हो जाता है वैसे ही मैं भी मर्दानी बाहों के स्पर्श की आदी हो गई हूं।’

मैं चौक गई-‘तूं यह क्या कह रही है?’

‘मैं सच कह रही हूं। एक शाम को मैं किशोर के साथ स्कूल के गेट से बाहर हुई तो वह बोला, चलो आज स्कूल के पिछवाड़े वाले बाग में चलते हैं। मैं तैयार हो गई। हम बाग में पहुंचे तो किशोर ने अचानक ही मजाक-मजाक में मेरी छाती पर हाथ फेर दिया। मैं सच कह रही हूं, मेरे रोम-रोम खड़े हो गए। पूरे बदन में सिहरन-सी दौड़ गई।

किशोर ने एक कुशल खिलाड़ी की तरह फिर दोबारा मेरे पास आकर मेरे कंधे को सहला दिया। पुरुष की बांहों का पहला-पहला स्पर्श एक स्त्री के लिए कितना अलौकिक, कितना आनंदमय और कितना सुखद होता है, इसकी अनुभूति मुझे उस दिन ही हुई। अब मैं भी किशोर के शरीर पर हाथ फेरने लगी। स्त्री बांहों के स्पर्श से वह भी पहली बार ही परिचित हुआ था।

हम एक दूसरे को स्पर्श करते-करते इतने उत्तेजित हो उठे कि हम कब निर्वस्त्र हो गए होश ही न रहा। हम एक दूसरे की बाहों में समाहित होने के लिए इस कदर उतावले हो उठे, जैसे छूट रही ट्रेन को पकड़ने के लिए यात्री उतावले रहते हैं। फिर क्षण भर में ही वह सब हो गया, जिसके लिए हम एक दूसरे को सहला रहे थे। आंखों में आंखें डाले देख रहे थे और बाहों में आने के लिए बेचैन हो रहे थे।

जाने क्यों सहवास के बाद मुझे बड़ा ही अफसोस हुआ, लेकिन मैं अगले दिन खुद-ब-खुद ही किशोर के पास पहुंच गई। वह भी मेरा ही इंतजार कर रहा था। इस तरह मैं रोज ही इसे न दोहराने का संकल्प लेती हूं और दूसरे दिन स्वतः ही किशोर के साथ बाग की ओर बढ़ जाती हूं। यह मर्दानी बांहों के स्पर्श का ही जादू है, जो चाहकर भी मैं या किशोर स्वयं को रोक नहीं पाते हैं। हमें इसका चस्का लग गया है। काजोल, हमारे इन संबंधों का जिक्र तुम किसी से भी न करना। समझ लो कि तुम ने कुछ देखा ही नहीं हैं।’

मैं धीरे से मुस्कराई, फिर उसकी बांह पकड़ कर ग्राउण्ड की ओर बढ़ गई। जब हम ग्राउण्ड के बीचों बीच अ मैं बोली- ‘मैं किसी से भी नहीं कहूंगी। मैं तेरी सहेली हूं। तूं तो अभी बहुत ही छोटी है। दुनिया में तो ऐसे भी लोग हैं, जो बच्चों वाले होकर भी तुमसे भी गई-गुजरी हरकतें करते हैं। जब उन्हें कोई कुछ नहीं कहता तो तुझे कैसे कुछ कह सकता है?’

मैं यह कहकर घर की ओर जाने लगी तो माधुरी बोली- ‘मेरी दीदी की शादी परसों है। तुम्हें जरूर आना है।’

मैं मुडकर बोली- ‘अरे वाह, यह तो बड़ी ही खुशी की बात है। इतनी अच्छी खबर तूं अब तक छिपाए बैठी थी। मैं जरूर आऊंगी, लेकिन माधुरी! तुझे या किशोर को इसकी प्रेरणा किससे मिली?’ मैं जानने के लिए उतावली हो उठी

‘अपने-अपने माता-पिता से।’ माधुरी यह कहकर सड़क की ओर बढ़ गई।

मैं हैरान, परेशान शाम के छः बजे लौटी तो मम्मी आ गई थी और पापा फिर टूर पर चले गए थे। मैं मम्मी से मिलकर अपने कमरे में आ गई। मम्मी कहीं जाने की तैयारी में थी। उसने मेरे कमरे में आकर बोली, ‘फ्रिज में खाना रखा हुआ है। जब भूख लगे तो निकाल कर खा लेना। और हां, मेरा इंतजार न करना।’ यह कहकर मम्मी चली गई।

मैंने उससे यह भी नहीं पूछा कि वह पूरी रात अकेली कहां रहेगी, क्योंकि मुझे पता था कि वह पूरी रात वेदान्त अंकल के यहां रहेगी। वह वेदान्त अंकल से अपने संबंधों को मुझ पर जाहिर नहीं होने देना चाहती थी। जबकि मुझे सब-कुछ पता था।

मैं मम्मी के जाते ही विचारों में खो गई- ‘बांहों का स्पर्श क्या इतना आनंददायक होता है, कि उसके बिना माधुरी जी नहीं सकती है? मम्मी मुझे अकेली छोड़कर वेदान्त अंकल की बांहों के स्पर्श का मजा लूटने चली गई। रवीना पापा के बिना नहीं रह पाती। क्या आईस्क्रीम और बर्फी से ज्यादा स्वाद साथ-साथ सोने में होता है? मैं नहीं मानती।

यह सब झूठ है। जीवन के सारे सुखों से भी बढ़कर जिस्मानी सुख भला कैसे हो सकता है?’ मैं यह सोचते-सोचते झपकी लेने लगी तो मुझे अचानक ही याद आया, कि मुझे तो अभी खाना भी खाना है। मैंने उठकर फ्रिज खोला। खाना निकाला। भूख तो उतनी थी नहीं। एकाध रोटी खाने के बाद थाली एक तरफ सरका कर बिना हाथ धोए ही बिस्तर पर निढाल पढ़ गई।

सुबह आंख खुली तो अखबार पर नजर जा टिकी। खिड़की से जाने कब अखबार फेंक गया था। अखबार के मुख पृष्ठ पर नजर पड़ते ही मुझे तो पसीना छूट गया। हमारे इलाके की एक ऐतिहासिक मस्जिद को धर्माधों ने ढाह दिया था। मैं सरसरी नजरों से खबर पढ़ने लगी।

जहां-जहां मुस्लिम अबादी वाली कॉलोनियां थीं, वहां-वहां कयूं लगा दिया गया था। हमारा घर जिस कॉलोनी में था, वहां मुस्लिमों की संख्या काफी थी। मैंने खिड़की से झांककर देखा, गलियों में सन्नाटा छाया हुआ था। पुलिस गश्त कर रही थी।

मेरा सुबह का सारा प्रोग्राम फेल हो गया। मुझे माधुरी के घर जाना था। इसलिए नहा-धोकर किचन में कल की ब्रेड पड़ी हुई थी, उसे सेंक कर नाश्ता किया और बेडरूम में आकर टी. वी. देखने लगी। मैं घूमने-फिरने वाली लड़की, कमरे में बन्द होकर रह गई थी।

मम्मी तो अब आने वाली थी नहीं। पापा का भी इंतजार करना बेकार था। हमारी कॉलोनी में कुछ ज्यादा ही कयूं का असर था। मुस्लिम ज्यादा थे। मैं रात को जो किचन में था, वही खाकर सो गई।

रात के बारह बज रहे थे। मैं दरवाजा बन्दकर सो रही थी। अचानक ही किसी ने दरवाजा थपथपाया तो मेरी आंखें खुल गई- ‘इस समय भला कौन हो सकता है? मम्मी-पापा में से तो कोई होगा नहीं।’ मैं दरवाजा खोलने के पक्ष में नहीं थी। तभी फिर दरवाजे पर थपथपाहट की आवाज हुई। मैं चौकनी होकर बिस्तर से उठ खड़ी हुई और दरवाजे के पास आकर बोली- ‘कौन है, इतनी रात को परेशान कर रहा है?’

उधर से धीमी आवाज आई- ‘देखिए! मैं एक हिन्दू हूं। यह इलाका मुस्लिम बाहुल्य होने के कारण मेरी जान को खतरा है। बाहर पलिस गश्त कर रही है। मैं सुबह से यहां फंसा हुआ हूं। आप दरवाजा खोलकर मुझे पनाह नहीं देंगी तो ये लोग मुझे जान से मार देंगे।’

‘जाकर बाहर गश्त कर रही पुलिस से सहायता मांगो। मैं घर में अकेली हूं। दरवाजा किसी भी कीमत पर मैं नहीं खोल सकती। तुमसे मेरी जान को भी तो खतरा हो सकता है।’ मैंने दबी आवाज में ही कहा।

‘मुझ पर विश्वास कीजिए। पुलिस दो व्यक्तियों पर गोली चला चुकी है। उसे बाहर किसी को भी देखते ही गोली मार देने का आदेश है। यहाँ पर मैं सुरक्षित इस लिए हूं, क्योंकि आस-पास में कोई नहीं है। पुलिस भी इधर नहीं है। अगर पुलिस इधर आ गई तो शायद ही मैं बच पाऊंगा।’ यह कहते कहते वह सुबह पड़ा। मुझे उसपर दया आ गई। वह सचमुच ही मुसीबतों से घिर गया था।

मैंने कांपते हाथों से दरवाजा खोल दिया। वह यही कोई बीस इक्कीस का स्मार्ट युवक था। भय और दहशत के मारे वह थरथर कांप रहा था। उसके चेहरे से बेचारगी टपक रही थी। वह कांपते पांवों से अन्दर आया और धम से सोफे पर बैठ गया- ‘एक गिलास पानी पिला दीजिए। सुबह से ही प्यास लगी है।’ मैंने लाइट जलाई और जाकर एक गिलास पानी ले आई। वह एक सांस में गिलास का सारा पानी पी गया। फिर बोला- ‘एक गिलास और… अब समझ में आया जान कितनी प्यारी होती है। आप तो अन्दर बैठी हैं न, बाहर भेड-बकरी की तरह लोग एक दूसरे को काट रहे हैं। मैं जाने कैसे बच गया।’ वह कल तीन गिलास पानी पी गया तब कहीं जाकर कुछ सामान्य हुआ।

मैं पलंग पर बैठती हुई बोली- ‘आप इधर फंस कैसे गए?’

‘अरे कुछ पूछिएमत! मैं इधर मम्मी की साड़ी एक दुकान पर लौटाने आया था दुकान से साड़ी लौटाकर जब बाहर निकला तो सारा दृश्य ही बदल गया था। चारों तरफ आपस में लोग मर-कट रहे थे। मैंने पास खड़े एक आदमी से पूछा तो उसने ही बताया कि यहां से जल्दी निकल लो। इस इलाके की एक मशहूर ऐतिहासिक मस्जिद को कुछ धर्माधों ने गिरा दिया है। यह इलाका मुस्लिमों को है। बमौत मारे जाओगे। मैं दूसरे रास्ते से किसी तरह भागता हुआ इधर चला आया। इधर तो और भी ज्यादा मार-काट मची हई थी। तभी पलिस आ गई। लोग अपने-अपने घरों में घस गए। मैं आपके मकान की दीवार फांद कर एक कोने में जाकर छुप गया। ईश्वर भला करे, आपने मुझे अपने यहां शरण दे दी।’

‘अरे ऐसी कोई बात नहीं। आप सोफे पर इत्मीनान से लेट जाइए।’

मेरे यह कहते ही वह युवक बोला- ‘आप कहां सोएंगी? मुझे तो अण्डर वियर और बनियान में सोने की आदत है।’ ‘कोई बात नहीं मैं बत्ती बुझा देती हूं।’

‘कोई दूसरा कमरा नहीं है? मैं वहीं सो जाता। आपके कमरे में मुझे सोना अच्छा नहीं लगता।’ यह शर्माते हुए बोला।

‘कमरा तो है, लेकिन उसमें ताला लगा हुआ है। मैं पलंग पर लेट जाती हूं।’ यह कहते-कहते मैंने बत्ती बुझा दी।

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