राजेन्द्र पाण्डेय
मई 22प्यार की खुशबू – राजेन्द्र पाण्डेय
अगली शाम को मैं मिनी स्कर्ट-टॉप पहनकर ड्रेसिंग टेबल के सामने आई तो मम्मी भी वहां पहुंच गई। मुझे मिनी स्कर्ट-टॉप में देखते ही वह मुझ पर बिगड़ती हुई बोली, ‘मिनी स्कर्ट-टॉप पहनकर कहां जाने की तैयारी हो रही है?’
‘तुम्हें मैं बताना भूल गई मम्मी, माधुरी की बहन की आज शादी है। मैं वहीं जा रही हूं।’ यह कहते-कहते मैं मुस्करा पड़ी।
‘शादी में जाना है तो कोई ढंग के कपड़े तो पहन लो।’ मम्मी यह कहते-कहते गुस्सा हो गई।
‘तो क्या यह कपडा बेढंगा है? तुम भी मम्मी हद करती हो। मैं तो इसे ही पहनकर जाऊगी।’ मैंने झिड़कते हुए जवाब दिया।
‘न जाने तुम्हें समझ कब आएगी? तुम्हारे इतने मोटे-मोटे जांघ मिनी स्कर्ट से झांक रहे हैं। कोई देखेगा, तो क्या सोचेगा क्या तुम अपनी टांगों का प्रदर्शन करने जा रही हो?’
मम्मी के यह कहते ही मेरा मूड खराब हो गया। मैं उसे आंखें दिखाते हुए बोली, ‘कोई देखेगा तो अपनी आंखों से ही न मुझे लूट या खा तो नहीं लेगा? मैं अगर सच बोल दूंगी तो…, मैं यह कहते-कहते अचानक ही चुप हो गई। मैंने देखा, मम्मी का चेहरा सफेद पड़ गया था। उसके चेहरे पर फैला गुस्सा सिमटकर गायब हो गया था। वह नरम पड़ते हुए बोली, ‘तुम तो बेवजह ही नाराज हो गई, बेटी।’ मम्मी एकदम से ही बदल गईं। मैं चुपचाप दरवाजे से बाहर हो गई।
रास्ते भर मैं यही सोचती रही, ‘इंसान की कमजोरी जब उजागर हो जाती है, तो वह कितना निर्बल पड़ जाता है? अपनी संतान से भी हर पल दबकर रहने लगता है। मम्मी की स्थिति कुछ ऐसी ही है। मम्मी की ही क्यों, जिनके भी भेद खुल जाते हैं, उनकी स्थिति ऐसी ही हो जाती है। वे दब्बू और कमजोर बन जाते हैं।’
तभी माधुरी का घर आ गया। दरवाजे पर ही देवगन खड़ा था। मैं सहमकर खड़ी हो गई। देवगन के छेड़ने-छाडने की आदत से मैं काफी डर गई थी। इतने में ही वह हंसकर बोला, ‘आज तुम्हें नहीं छेडूंगा।’
‘वह भला क्यों? तुम इतने शरीफ कब से बन गए?’ मैं यह कहती हुई दरवाजे में आई तो बिजली की रोशनी में मेरा ही नहीं, उसका भी चेहरा दमक उठा। देवगन मेरे हाथों को सहलाते हुए बोला, ‘तुम्हें छेडकर मुझे तुम्हें खोना है क्या?’
मैं अचानक ही मुस्कारा पड़ी मर्दानी बांहों के स्पर्श का लाजवाब स्वाद तो मैं कब का चख चुकी थी। देवगन के हाथों का स्पर्श पाते ही मैं भीतर ही भीतर सिहर उठी। देवगन को शायद मेरी मनःस्थिति का अनुमान नहीं था।
तभी माधुरी कुछ दूर खड़ी नजर आई। मैं उससे अपना हाथ छुड़ाकर वहां चली गई, जहां माधुरी खड़ी थी। मुझे देखते ही माधुरी चहक पड़ी, ‘मैंने तो सोचा था कि तू आएगी ही नहीं।’
इसी बीच उसकी मां ने उसको आवाज देकर अपने पास बुला लिया। मैं वहां से सीधे ड्राइंग रूम में आ गई। फिर अचानक ही मेरे दिमाग में आया, कि क्यों न मैं नाखून पॉलिश कर लूं। सामने ही ड्रेसिंग टेबल पर नाखून पॉलिश की शीशी रखी हुई थी।
मैं ड्रेसिंग टेबल की ओर बढ़ गई। तभी मेरी एक हल्की-सी चीख निकल गई न जाने देवगन वहां अचानक कहां से प्रकट हो गया। वह मेरी चीख सुनकर काफी घबराया हुआ था। जब बात उसकी समझ में नहीं आई तो वह बोला, ‘क्या हुआ?’
मेरे पांव में शीशे का टुकड़ा चुभ गया था। देखते-ही-देखते खून से मेरा पांव लथपथ हो गया। देवगन गुस्से से बड़बड़ाया, ‘ये माधुरी की बच्ची पागल हो गई। है। कांच का गिलास भी तोड़ गई और यूं ही छोड़ भी गई।’ यह कहते-कहते उसने मुझे अपनी गोद में उठाकर पलंग पर बैठा दिया और रुई में डिटॉल लेकर जहां कांच चुभा था, वहां रुई का फाहा रख दिया।
कांच मामूली ही चुभा था। मैं सोचने लगी, ‘क्या देवगन मुझे उतनी ही खुशी दे सकता है, जितना उस युवक ने उस रात दिया था? वैसे देवगन मुझपर मुग्ध तो है।
तभी देवगन बोला, ‘ठहरो, मैं तुम्हारे लिए चाय लेकर आता हूं।
वह हवा की तरह गया और एक कप चाय लेकर आ गया।
‘मैं बरबस ही हंस पड़ी, ‘तुम्हारी चाय कहां है?’
‘यहीं कहीं है। तुम पहले आधी चाय पी तो लो।’
‘आधी चाय? क्या तुम जूठी चाय पियोगे? मैं आश्चर्य से बोली।
‘क्यों, मैं तुम्हारी जूठी चाय नहीं पी सकता? एक-दूसरे का जूठा खाने-पीने से ही तो आपस की शर्म-झिझक कम होती है। काजोल, मैं तुम्हें बहुत ही पसंद करता हूं।’
मैं मन-ही-मन मुस्कराई ही नहीं, इतरा भी उठी, ‘तुम मुझसे कितना प्यार करते हो, यह तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन यह तो पता ही है, कि तुम मेरी देह के आशिक हो और मैं भी तुम्हारे पुरुष देहयष्टि की दीवानी हूं। तुम मेरे जीवन में आने वाले दूसरे पुरुष होगे। मुझे देखना है, तुम्हारी मर्दानी बांहों में कितना आनंद है, कितना नयापन है और कितना एक स्त्री को खुश करने का जादू है।
इसी दौरान देवगन मुझे लूट लेने वाली निगाहों से घूरता हुआ बोला, ‘काजोल, चाय तो पियो, ठंडी हो रही है।’
मैं मंद-मंद मुस्कराती हुए चाय पीने लगी। अभी मैंने ने आधी चाय ही पी थी कि उसने मेरे हाथ से कप छीन लिया और बोला, ‘तुम्हारे होंठो का स्पर्श पाकर चाय कितनी स्वादिष्ट हो गई है। न मालूम तुम्हारे होंठों के स्पर्श में कितनी मदहोशी होगी, कितनी जादुई मिठास होगी और कितनी ताजगी होगी?’
मैं आश्चर्य से उसे देख रही थी। वह चाय की चुस्कियां बड़े मजे से ले रहा था।
तभी बारात आने का शोर हुआ। मैं पलंग से उठकर विवाह मंडप की ओर बढ़ गई।
इसके दूसरे दिन तड़के मेरी आंख खुली तो आंखों के सामने अनायास ही देवगन नाच गया। मैं देवगन के पुरुषोचित सौंदर्य से खेलना चाहती थी। मर्दानगी नहीं होती, बाल्कि स्त्रियों में भी स्त्रीत्व होता है, जो मर्दानगी से कई गुना अधिक शक्तिशाली, विस्फोटक, ज्वलनशील, जोशीला और आश्चर्यजक होता है।
दस बजने से पहले ही मैं स्कूल पहुंच गई। देवगन गेट पर ही मिल गया। मैंने दूर से ही देखा, वह मुझसे कहीं अधिक उतावला था। मेरे नजदीक आते ही वह बोला, ‘माधुरी बीमार है। उसने तुम्हें घर पर बुलाया है।’
मैं माधुरी के बीमार होने की बात सनकर चिंतित ही उठी, ‘कहीं माधुरी को उसके पापा ने किशोर को लेकर बुरा-भुला तो नहीं कहा है?’ मैं यह सोचते ही देवगन के साथ उसके घर के लिए चल दी।
कोई बीस मिनट के बाद मैं देवगन के साथ उसके घर के नजदीक आई तो दरवाजे पर बड़ा-सा ताला लटका हुआ था। मैंने आश्चर्य से देवगन की तरफ देखा, तो वह हंसने लगा, ‘माफ करना, मैं झूठ बोला था। हकीकत तो यह है कि माधुरी दीदी के साथ उसकी ससुराल गई है और मम्मी-पापा शहर से बाहर हैं।
‘तो फिर तुम्हें झूठ बोलने की क्या जरूरत थी? और तुम यह ताला खोलोगे कैसे?’ मैं यह कहते-कहते चिंतित हो उठी।
‘इस ताले की चाबी तो मेरी जेब में है और झूठ तो थोड़ा-बहुत बोलना ही पड़ता है।’ यह कहकर उसने ताले में चाबी लगा दी। ताला खुलते ही उसने बड़ी फुर्ती से दरवाजा खोल दिया। हम दोनों अंदर आ गए। फिर दरवाजा बंद कर दिया।
बेडरूम में आते ही देवगन ने अलमारी से इत्र का एक शीशी निकाली और मेरे अंगों पर स्प्रे कर दिया। न जाने वह कैसा इत्र था, मेरे शरीर में उसकी खुशबू समाते ही मैं मदहोश हो गई और देवगन की बाहों में समाने के लिए मचल उठी। तभी वह जोर से हंसा, ‘इसे मैं सैक्सी इत्र कहता हूं।
पापा को मैंने मम्मी के शरीर पर स्प्रे करते हुए कई बार देखा है। वह भी इसे सैक्सी या मदहोश कर देने वाला इत्र ही कहते हैं। यह कहते-कहते उसने पूरे बिस्तर पर स्प्रे कर दिया, ‘पूरा कमरा मदहोशी के आलम में डूब गया। बाहर की हवा भी आएगी तो सुगंधित हो उठेगी।’
यह सुनकर मैं हल्की -सी। मुस्कराई, फिर बिस्तर पर निढाल पड़ गई। देवगन बोला, ‘आज गर्मी बहुत है, कपड़े तो उतार दो।’
‘हां, गर्मी तो है। कहते हुए मैंने कपड़े उतार दिए।
देवगन शांति से कहां बैठने वाला था। वह झुककर मेरे तलवे चाटने लगा। मैं चाहकर भी अपने पैर खींच न सकी। शुरू-शुरू में तो बड़ा ही अजीब-सा लगा, लेकिन धीरे-धीरे मुझे अच्छा लगने लगा मैं बुदबुदाई ‘कहने को तो पुरुष कहते हैं कि स्त्रियां मर्दो के पांवों की धूल है, पर क्या वे झूठ नहीं बोलते हैं? यहां तो मेरे पांवों की धूल देवगन ही बना है।’
तभी अचानक मैं उचक-सी गई देवगन मेरी पोंवों को चूमते हुए आगे की ओर बढ़ता जा रहा था। मैं तो उसकी इस दीवानगी को देखकर पागल हुई जा रही थी। हंसती हुई मैं बोली, ‘अरे बुद्ध, तुमने यह सब कहां से सीखा है?’
‘मैंने पापा को ऐसा करते देखा है।’
‘तो तुम ताक-झांक भी करते हो? बड़े नटखट हो।’
‘और तुम क्या कोई कम हो?’ यह कहते-कहते वह मेरे वक्षों पर जीभ गोल-गोल छुमाने लगा। मैं एक अजीब-सी पीड़ा से सीत्कार उठी और उछल कर उसे अपनी बाहों में भींच लिया, ‘वास्तव में ही तुम इस कला के पारखी हो….काफी मर्मज्ञ हो’ मैं यह ‘कहते-कहते उसकी रोएंदार छाती को होंठो से सहलाने लगी। अब उछलने की बारी उसकी थी। वह जोर से मुझ पर उछला और मेरी छाती को दांतो में लेकर गुदगुदाने लगा।
मैंने एक सीत्कार ली और प्यार की गहराईयों में डूबने-उतरने लगी। हम दोनों को ही कोई होश नहीं था। हम इतने आक्रमक हो गए थे, कि मधुर स्पर्श ने नोंच-खरोच का रूप ले लिया था। इस घात-प्रतिघात में भी एक आनंद था। मेरे संपूर्ण बदन में फैली पड़ी गुदगुदी को नोंच-खरोंच की क्रियाएं ही काबू में रखी हुई थी। तभी देवगन अचानक शांत पड़ गया। मैं तो पहले से ही निढाल पड़ गई थी।