उन दिनों मैं बी.ए. फाइनल इयर में थी। मम्मी, पापा को छोड़कर वेदांत अंकल के साथ ही रहने लगी थी। महीने-दो-महीने में वह इधर का एक चक्कर लगाती और मुझसे मिलकर चली जाती। जहां तक मैं जानती थी, मम्मी-पापा में अलगाव का कारण सेक्स ही था।
पापा से रवीना उम्र में बहुत ही छोटी थी। वह शादी कर किसी दूसरे शहर में चली गई थी। पापा को इस मामले में करारी मात मिली थी। इस दौरान मुझे जो भी युवक अच्छा लगा था, मैंने उसे छोड़ा नहीं था। अब तक मैं सैकड़ों पुरुषों से यौन-संबंध बना चुकी थी, लेकिन उस युवक और देवगन को मैं आज तक भुला नहीं पाई थी। मेरे मन-मंदिर में आज भी उनकी धुंधली तस्वीरें थी, लेकिन मैं अतीत को लेकर जीने वालों में से नहीं थी। मुझे तो हर शाम एक नया स्वाद चाहिए था।
इस नए स्वाद का चस्का ही शायद मुझे पुरुष-दर-पुरुष भटकाता रहा। न मालूम मुझमें ऐसी क्या खूबी थी, कि जिस भी पुरुष पर वह नजरें टिका देती, वह मुझे पाने के लिए मचल उठता था। यौन-क्रीड़ा से भी अधिक आनंद छूने छाने या सहलाने से मुझे मिलता। इसकी वजह मेरे पूर्व आशिकों का इस कला में निपुण होना ही था।
स्पर्श, फिर चुंबन, इसके बाद यौनानंद…. मेरे जीवन का एक मात्र ध्येय बन गया था। अब तक मेरे जीवन में कुछ ऐसे पुरुष भी आ चुके थे, जो बड़े उद्योगपति या देश के शीर्षस्थ नेता थे, लेकिन मैंने उनके नाम को भुनाया नहीं था, क्योंकि मैंने कभी इस दृष्टि से किसी पुरुष से संबंध बनाए ही नहीं थे। इसे कोई मेरी जिंदगी की भूल समझे या उसल। मेरी उम्र भी तो पैसे को महत्व देने वाली नहीं थी। खाने-पीने या घूमने-फिरने में जो पुरुष मेरे साथ होता, वह खर्च करता ही था। मैं उसको निचोड़ना अच्छी बात नहीं समझती थी।
समय यूं ही धीरे-धीरे बीतता रहा।
मैं उन दिनों एम.ए. फाइनल इयर में थी। मां ने मुझसे मिलना अब बंद कर दिया था। बस पापा ही सहारा थे। यह सहारा भी एक दिन मेरे सिर से उठ गया। कोई हफ्ते भर बाद पापा घर आए, तो उनके साथ एक छब्बीस वर्षीया स्त्री थी। वह स्वभाव से बहुत ही चंचल और तेज-तर्रार थी। पापा पर उसने न जाने कौन-सा जादू कर दिया था, कि वह मुझसे बार-बार कह रहे थे, कि काजोल, तुम मम्मी के पास लौट जाओ या कोई नौकरी कर लो और कहीं कमरा किराए पर लेकर रहो।
मैं कोई नासमझ बच्ची तो थी नहीं, यह अच्छी तरह से समझ सकती थी, कि वह मुझे स्वयं से अलग क्यों रहने की सलाह दे रहे हैं। मैंने पापा से कहा, ‘पापा, आप मुझे पढ़ाई का खर्च तो दे सकते हैं न?’
‘अरे वाह, तुम अपनी मां की भी तो बेटी हो। जाकर उससे ही पढ़ाई का खर्च मांगो। मैं तुम्हें अब फूटी कौड़ी भी नहीं देने वाला…..।’ पापा के यह कहते ही मैं एकदम लाचार और बेबस हो गई।
ब्रीफकेस में अपना सारा सामान भरकर मम्मी से आकर मिली। वह पापा से भी कहीं अधिक निष्ठुर और निर्मम निकलीं। उसने कहा, ‘तुम इतनी बड़ी हो गई हो। अपनी व्यवस्था भी नहीं कर सकती? तुम खूबसूरत हो, जवान हो और पढ़ी-लिखी हो, क्या तुम्हें पुरुषों से पैसा ऐंठना नहीं आता? मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकती।’
यह सुनकर मुझे गहरा धक्का लगा अब मैं क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कुछ सोच कर मैं देवगन से मिलने के लिए उसके घर आई, तो पता चला वह और माधुरी दोनों ही जबलपुर में रहकर आगे की पढ़ाई कर रहे हैं। यहां छुट्टियों में ही आते हैं।
मैं माधुरी के घर से वापस आई तो मम्मी-पापा पर बहुत गुस्सा आया, ‘वे दोनों अपने तरीके से जी रहे हैं तो जीएं, लेकिन उन्हें मेरे साथ भी तो न्याय करना चाहिए था। क्या उन्हें यह पता नहीं है, कि एक लड़की के लिए अकेले जीना कितना मुश्किल होता है?’
मैं वहां से सीधे कॉलेज आई। अब पढ़ने का तो कोई सवाल ही नहीं था। मैं प्रोफेसर मनोहर से मिलना चाहती थी। वह मुझ पर दिलोजान से फिदा थे और काफी अमीर भी थे, लेकिन आज वह कॉलेज नहीं आए उस समय शाम के छह बज रहे थे। दरवाजा खुला ही था। मैं अंदर आई, तो वह सोफे पर बैठे सिगरेट पी रहे थे। उनकी उम्र यही कोई पैंतीस-चालीस की थी और पत्नी से उनका तलाक हो गया था। बच्चे उनकी पत्नी के साथ ही रह रहे थे।
मुझे अपने यहां अचानक ही देखकर उनका चेहरा खिल उठा। वह सोफे से खड़े होकर मेरे पास आए और मेरा हाथ पकड़ते हुए चहक पडे, ‘पत्नी न हो तब भी मुश्किल और हो तब भी मुश्किल…. मेरे ख्याल से रखैल ही रखना सही है।’
मैंने पहली बार उनका यह रूप देखा था। मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ, ‘लोग दोहरी जिदंगी क्यों जीते हैं?’ तभी उन्होंने अलमारी से एक महंगी शराब की बोतल निकाली और मेरी ओर मुस्कराकर देखने लगे।
मैंने भी मुस्कान का जवाब मुस्कान से दिया। मुझे प्रोफेसर मनोहर के इरादे से कोई एतराज नहीं था। इसी बीच वह शराब से भरा गिलास मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले, ‘शराब तो तुम पीती होगी?’
शराब तो मैंने तभी पीना शुरू कर दिया था, जब कॉलेज में दाखिला लिया था। पुरुष और शराब ये दोनों ही चीजें मेरे जीवन से जुड़ गई थीं। मैंने आंख मंदकर गिलास खाली कर दिया। प्रोफेसर मनोहर बहत ही खश हए। ऐसी शराब मैंने पहली बार ही पी थी। पूरे शरीर में नशा फैल गया। मेरी आंखों के सामने धुंधलापन छा गया और देखते-ही-देखते पलकों ने आंखों को ढांप लिया।
कोई दो घंटे बाद मुझे होश आया, तो प्रोफेसर मनोहर पर बहत ही गुस्सा आया, ‘सभी पुरुष एक जैसे ही क्यों होते हैं? जब मैं मनोहर सर के साथ यौन-जीवन जीने के लिए तैयार थी, तो इन्हें मुझे शराब में बेहोशी की दवा डालकर पिलाने की जरूरत ही क्या थी?’
तभी मेरा हाथ अपने शरीर पर गया तो अवाक रह गई। मेरे शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था। मैं बिल्कुल ही नंगी थी। इतने में ही मेरे हाथ अपनी जननेंद्रिय पर चले गए। उसे छूने से मुझे यूं लगा जैसे प्रोफेसर मनोहर ने कुछ किया ही न हो। तभी मैंने उठने की कोशिश की तो उठ न सकी। मुझे कांच चुभने जैसा दर्द हो रहा था। मैं बुदबुदाई, ‘प्रोफेसर मनोहर ने मेरे साथ कैसा सहवास किया है, कि मेरा शरीर फटा जा रहा है।’ मैं कराहती हुई किसी तरह से उठी और कपड़े पहनकर पुनः बिस्तर पर लेट गई।
इसी बीच मनोहर सर अंदर दाखिल हुए। वह मुस्करा रहे थे। मैंने घृणा से उन्हें देखा, ‘तुम मर्द हो या हिजड़े? मैं तो पूरे होशो हवास में तुम्हारी बांहों में आने के लिए तैयार थी, फिर तुमने मुझे बेहोशी की दवा धोखे से क्यों पिलाई?’
क्योंकि मैं उत्तेजित नहीं हो पाता हूं और मुझे यह बर्दाश्त नहीं, कि कोई स्त्री मुझे नामर्द कहकर मेरा मजाक उडाए। मैंने तुम्हें बेहोश कर अप्राकृतिक तरीके से तुम्हारे साथ सहवास किया है।’ वह बड़ी ही बेशर्मी से यह कहकर मुस्करा पड़े। मैं खा जाने वाली निगाहों से उन्हें देखती हुई उठ खड़ी हुई-‘मैं तुम्हें छोडूंगी नहीं, तुम एक कसाई से कम नहीं हो। मैं तुम्हारा खून पी जाऊंगी।’
तभी वह तेजी से आगे बढ़े और मुझे धक्का देकर बिस्तर पर गिरा दिया, ‘मैं तुम्हें इस काबिल छोडूंगा तब न मेरा खून पियोगी। मैं तुम्हारा जीवन बर्बाद कर दूंगा। मुझे हिजड़ा एक स्त्री ने ही बनाया है।’
‘तो तुम उसका बदला मुझसे क्यों ले रहे हो?’ मैं डर के मारे कांप उठी।
‘क्योंकि तुम भी तो एक स्त्री ही हो। मुझे हर स्त्री में वही नजर आती है। मैं तुम्हें बेहोश कर-कर के मार डालूंगा। तुमसे पहले मैं कॉलेज की दो लड़कियों को ऐसे ही मार चुका हूं।’ यह कहकर मनोहर सर पागलों की तरह अपना सिर खुजलाने लगे और अचानक ही मुझे गुदगुदाने लगे। मैं हंसते-हंसते बेहोश हो गई।
मैं एक ऐसे यौन रोगी के चक्कर में आ गई थी, जो दिमागी रूप से बिल्कुल पागल था। जब पागलपन का दौरा उसे पड़ता तो वह कुछ भी नहीं देखता था। मैं हैरान थी, ‘यह कैसा आदमी है, जो रात में शैतान बन जाता है और दिन में कॉलेज में जाकर बच्चों को पढ़ाता है। उस समय तो वह एक संवेदनशील इंसान लगता है।’
इस तरह दो हफ्ते बीत गए। मैं उसके पागलपन से काफी परेशान रहने लगी थी। उस हैवान ने मेरे यौनांगों को दांत से काट-काटकर घायल कर दिया था। मेरे होंठों से तो हमेशा ही खून रिसता रहता था। उसकी हरकतें किसी जानवर से भी बदतर थीं।
एक रात प्रोफेसर मनोहर देर से घर वापस आए तो मैं झट से बिस्तर से उठ बैठी। वह मुझे कमरे में बंद करके कॉलेज जाते थे। कुंडी खोलने की आवाज जैसे ही मुझे सुनाई दी, मैं बाथरूम में चली आई, और कुंडी खोलकर चुपचाप बैठ गई। अंदर घुसते ही वह सबसे पहले मेरे बिस्तर के पास आए। जब मैं वहां नजर न आई, तो वह पलंग के नीचे झुककर देखने लगे। मैं बाथरूम के रोशनदान से उचककर सब देख रही थी। फिर वह गुस्से से गुर्राए, ‘कहाँ चली गई। मेरे सामने आ जाओ, वर्ना बिस्तर को आग लगा दूंगा।’ यह कहकर वह दूसरे, तीसरे, चौथे फिर पांचवें कमरे में एक एक कर गए। जब मैं कहीं नजर न आई, तो वह थक-हारकर शराब पीने लगे। तभी उनके दिमाग में जाने क्या सूझा। वह बड़बड़ाए, ‘लगता है बेवकूफ, बाथरूम में छुपी है।’ यह कहते-कहते बाथरूम के दरवाजे को आकर पीटने लगे, ‘बाहर निकल आओ, नहीं तो दरवाजा तोड़ दूंगा।’
बाथरूम का दरवाजा काफी मजबूत था। मुझे पता था, जल्दी टेगा नहीं। मैं चुपचाप बैठी रही। अब उन्होंने पैर से ध क्का मारना शुरू कर दिया, लेकिन दरवाजा हिला तक नहीं। वह अब काफी बौखला गए थे। मैंने सोचा अगर आज उनके हाथ आ गई, तो वह मुझे जिंदा ही चबा जाएंगे। फिर वह सोफे पर आकर बैठ गए और शराब पीने लगे। मैंने बाथरूम में नजर दौडाई, तो मुझे एक कपडा साफ करने वाला लकड़ी का चौडा डंडा दिखाई दिया। मैंने उसे हाथ में ले लिया। वह अब काफी नशे में थे। मैंने धीरे से दरवाजा खोला और दबे पांव उनकी पीठ की ओर बढ़ गई। वह मुझे देख नहीं रहे थे। मेरी जान पर बन आई थी। मैं कुछ भी करने के लिए तैयार थी। उनके नजदीक पहुंचते ही मैंने एक जोरदार वार उनकी पीठ पर कर दिया। तभी दर्द के मारे चीख पड़े और पीछे मुड़कर भेड़िए की तरह मेरी तरफ लपके। लेकिन मैं हाथ नहीं आई और तेज कदमों से दरवाजे की ओर भागती चली गई। वह नशे में भी थे और घायल भी हो चुके थे। दौड़ने में मेरा मुकाबला नहीं कर सके। मैंने दरवाजे के बाहर आते ही बड़ी तेजी से फाटक बंद किए और कुंडी लगा दी। वह दरवाजा पीटते और चीखते रहे, लेकिन मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। जान बची लाखों पाए।
उस समय यही कोई रात के तीन बज रहे थे। सुबह जल्दी काम पर जाने वाले बिस्तर से उठ गए थे। पास के मकानों से बोलने की आवाजें सुनाई दे रही थी। मैं तेज-तेज कदमों से चलकर सड़क पर आ गई। मेरी मनःस्थिति बहुत ही खराब थी। मेरी सोचने की शक्ति भी अब क्षीण हो गई थी। मैं पहले वाली काजोल थी ही नहीं। इन कुछ हफ्तों में ही मेरा पूरा जिस्म ही बदल गया था। मैं दुविधापूर्ण स्थिति में जाने कब तक खड़ी रही। फिर कुछ सोचते हुए आगे बढ़ गई